जब राजा विश्वरथ नंदनी लेने आया...
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नंदनी हमारे आश्रम की जान है, वो यहा से कही नही जाएगी, रिसीवर राजन के आदेश का पालन ना करना, आपको बहुत हानी पहुचा सकता है, हमे स्वीकार है मंत्री जी, लेकिन नंदनी यही ही रहेगी, जब मंत्री ने विश्वारथ को सभी बात बताई,
तो उनके क्रोध की सीमा ना रही, बोले उस रिषी का इतना दुस्साहस, मेरे आदेश का पालन नही किया, मंत्री तुरंत अपनी सेना लेकर उस आश्रम मे जाओ, हमे हर सम्भवतह वो गाए आश्रम मे चाहिए, मंत्री अपनी विशाल सेना के साथ आश्रम पहुच गए,
संयोग वस उस समय रिषी वसिष्ठ आश्रम मे नही थे, मंत्री ने अहंकार स्वर मे, रिषी पत्नी अरूंधती से बोला, माता हमे नंदनी को महल ले जाने दो, नही हम बल पूर्वक ले जाएंगे, माता ने तुरंत नंदनी के सामने हाथ जोडकर बोली,
मां मै विवस हूं आपकी रक्षा करने मे, कृपा करके इस आश्रम की लाज बचाओ, इसके बाद नंदनी ने किया वो चमत्कार, सभी सैनिक देख हक्के बक्के रह गए, माता ने अपने शक्ति से, हजारो सैनिको को जन्म दे दिया, और फिर हुआ भयंकर युद्ध,
जिसने विश्वारथ की सेना को परास्त कर दिया, इसके बाद कुछ बचे सैनिको को भागना बडा, विश्वारथ ने जैसे ही सुना, की हमारी सेना एक रिषी के आश्रम से हार गई, उसके क्रोध की सीमा ना रही, उसने अपनी सेना को लेकर, फिर आश्रम मे पहुचा,
इधर अरूंधती रिषी वसिष्ठ को, सारी बात बता ही रही थी, की सैनिक के आने की आहट, फिर से सुनाई देने लगी, ब्रह्म रिषी बाहर आओ, राजन आप क्रोध क्यो कर रहे है, आप भूल गए हो, आप हमारी सीमा के सानिध्य मे रह रहे हो,
इसलिए यहा सभी पर मेरा अधिकार है, और आपने मेरे आदेश का पालन नही किया, राजा को इतना क्रोध सोभा नही देता है, रिसी हमसे ग्यान की बाते मत करो, हमे नंदनी दे रहे हो, या फिय इस आश्रम को ही मिटा दिया जाए,
आपमे क्षमता हो तो जरूर प्रयास करे राजन, विश्वारथ ने जैसे ही उस गाए की तरफ बडे, गाए ने अपनी शक्ति दिखाना शुरू किया, वह गाए एक विशाल रूप धारण कर लिया, विश्वारथ ये देख भौंचक्का रह गया, और अगले ही पल वह अपने साधारण रूप मे आ गई,
ये सब देख विश्वारथ को यकीन नही हुआ, फिर वसिष्ठ जी बोले, राजन आप इसे बाहुबल से तो नही ले जा सकते, आप मे इतना तप और शक्ति नही है, की आप इसे छू भी सके, इसके लिए बहुत कठिन तपस्या करनी पडती है,
रिषी की ये बात, विश्वारथ के दिल मे घात की तरह लगी, की आज मै एक गाए ले जाने मे असमर्थ हूं, तब भी क्रोध मे बोला, रिषी आज मै इसे छोडकर जा रहा हूं, लेकिन मै ये साबित करके दिखाऊंगा, की मै भी तपस्या कर सकता हूं,
और मै भी शक्ति प्राप्त कर सकता हूं, तुरंत राज्य आकर अपने पुत्र को, सिंघासन का उत्तराधिकारी बना दिया, और स्वयं वन मे निकल गए, और एक जगह बैठकर घोर तपस्या की, उनकी तपस्या मे वो ताकत थी, की पूरा स्वर्ग हिल गया,
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और स्वयं ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर, उनके पास आए, फिर विश्वरथ ने ब्रह्मदेव से सभी अस्त्र शस्त्र, और विद्या का वरदान मांगा, और फिर उसी क्रोध के साथ, पुनह वसिष्ठ जी के आश्रम पहुच गए, वसिष्ठ जी ने एक बार फिर विश्वरथ को समझाया,
राजन आप अहंकार मे डूब चुके हो, लेकिन विश्वरथ के अंदर तो, क्रोध की अग्नि जल रही थी, फिर रिषी वसिष्ठ और विश्वरथ मे घमासान युद्ध हुआ, विश्वरथ ब्रह्म देव द्वारा प्राप्त किए, अस्त्र शस्त्र छोड रहे थे, इधर रिषी वसिष्ठ अपने तप से सभी,
अस्त्र शस्त्र को असफल कर रहे थे, जब बहुत प्रयास करने के बाद, विश्वरथ हार गए, फिर रिषी वसिष्ठ ने उन्हे समझाया, राजन बीज जाहे कितना भी उत्तम क्यो ना हो, अगर वो भूमि उपजाऊ नही है, जिसमे बीज बोया जा रहा है,
तो उपज का प्रश्न ही नही उठता, लेकिन विश्वरथ अब भी, अपनी क्रोध की अग्नि मे जल रहा था, रिषी वसिष्ठ के ग्यान की बाते, उसको समझा नही पा रही थी, और वसिष्ठ को, अगले युद्ध की प्रतिक्षा करने को कहा, मै फिर आऊंगा रिषी,
जब रात्रि मे गुरू वसिष्ठ आश्रम मे बैठे थे, तो अरूंधती ने कहा, स्वामी महाराज के अंदर एक हठीला बालक है, वो चंद्रमा और सूर्य मे, अंतर नही समझ पा रहा है, कही इस अग्यानता के कारण, उसका हाथ ना जल जाए,
देवी जब व्यक्ति अपने कारण से जलता है, तो अंतर वह स्वयं सीख लेता है, इतने मे ही अयोध्या के मंत्री जी आश्रम मे प्रवेश होते है, और मंत्री रिषी वसिष्ठ को प्रणाम कर कहता है, गुरूदेव युवराज हरिश्चंद्र का राज्य अभिषेक होना है,
कुल गुरू होने के नाते राजा सत्यव्रत ने, आपको बुलाया है, महामंत्री जी हमे स्वीकार है, राजन से बोल देना, वसिष्ठ जरूर आएगा, यहा अयोध्या मे राज्य अभीषेक की, भव्य तैयारीयां चल रही थी, गुरू वसिष्ठ का अच्छे से स्वागत किया गया,
और उनकी उपस्थिति मे राजा सत्यव्रत के पुत्र, युवराज हरिश्चंद्र का राज्य अभीषेक किया गया, और राजा सत्यव्रत ने फिर अपने महल को त्याग दिया, और संन्यासी जीवन व्यतीत करने लगे, लेकिन फिर भी सत्यव्रत अपने जीवन से खुश नही थे,
उन्हे अभी भी संसारिक मोह-माया सता रही थी, फिर सत्यव्रत को याद आया, मुझे सत्य का मार्ग, और स्वर्ग की प्राप्ति का मार्ग, मेरे कुल गुरू वसिष्ठ जी ही बता सकते है, इसके बाद वह रिषी वसिष्ठ के आश्रम गए,
और उनसे स्वर्ग जाने का मार्ग पूछा, गुरु वशिष्ठ ने सत्यव्रत को बताया, राजन यह संभव नही है, यह प्रकृति का नियम है, जो भी प्राणी जन्म लेता है, तो उसे एक ना एक दिन, इन पंच तत्व से बने शरीर को त्यागना पडता है,
लेकिन फिर भी सत्यव्रत को स्वर्ग जाना था, जब गुरु वसिष्ठ के आश्रम से निराश होकर लौट आए, तब भी अपने मन की इच्छा पर बंधे थे, वो हर परिस्थिति मे स्वर्ग जाने का मार्ग तलास रहे थे,
फिर उनके एक मित्र ने, गुरू वसिष्ठ के श्रेष्ठ पुत्र शक्ति को बताया, महाराज वह बहुत ग्यानी पुत्र है, उनसे एक बार सलाह लीजिए, वह जरूर आपको मार्ग बताएंगे,

