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अब गुरुदेव को सक होने लगा, की ये सेठ कुछ ज्यादा ही दानी नही बन रहा है, अगली बार जब वह आया, तो गुरुदेव बोले ऐ सेठ इधर आओ, जी गुरुदेव आग्या, ये जो धन है, ये तुम्हारा है, हां गुरुदेव मेरा है, गुरुदेव बोले देख तेरा नास हो जाएगा।
मुझसे झूठ मत बोलना, सच बताओ ये धन किसका है, वो सेठ घबडा गया, बोला आपके जो शिष्य रसिक देव है, वो वहा मथुरा मे है, महिने मे जितना धन उनके पास आता है, वो पूरा धन मेरे हाथ आपके यहा भिजवा देते है।
ये सुनते ही, गुरूदेव के क्रोध की सीमा ना रही, सारा धन फेक दिया उसके ऊपर, लेकर जाओ इसे, और जाकर उसके मुंह मे मारना, उसे आश्रम से निकाल दिया, वृंदावन से निकाल दिया, अब भी पीछा नही छोडता है, कुछ ना कुछ करके यहा भेजता रहता है।
क्या दिखाना चाहता है, और उसको आग्या देना, यदि गुरू के प्रति निष्ठा रखता है, तो अब वृज छोडकर चला जाए, सेठ ने सारा धन लिया, और सेठ जी उदास होकर वापस गए, और रसिक देव को सारा धन दिया, हाथ जोडकर बोले, आज गुरुदेव बहुत नराज हो गए।
उन्हे पता चल गया, की ये सेवा आप भेज रहे है, और उन्होने आग्या की है, की आज सूर्यास्त होने से पहले पहले वृज छोडकर चले जाओ, अब रसिक देव की, व्याकुलता की पराकाष्ठा पार हो गई, लेकिन गुरू की आग्या है, अपनी समाग्री उठाई, और तुरंत निकल गए वृज छोडकर।
ये देख उस सेठ का भी, ह्रदय भर आया, क्या तो शिष्य मे गुरुदेव के प्रति निष्ठा है, अब रसिक देव अपने जन्म स्थान बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश मे चले गए, अब वह वही रहने लगे, अब तो ना सेवा पहुचा पाते है, और ना कुछ कर पाते है, अब तो नित्य एकांत मे बैठकर।
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अपने गुरुदेव का चिंतन करते है, इतना होने के बाद भी, अपने गुरुदेव का त्याग नही किया, धीरे धीरे समय बीतता गया, अब तो कई वर्ष बीत गए, देखा भी नही वृंदावन, कुछ वर्षो बाद, श्री नर हरदेव जी बुंदेलखंड यात्रा पर गए, जैसे ही लोगो को पता चला।
की वृंदावन के परम पूज्य गुरुदेव आ रहे है, इतने बडे संत आए है, खूब भक्त और वैष्णव भक्त, सभी ने स्वागत किया, कुछ लोग तुरंत रसिक देव के पास गए, बोले आपके गुरुदेव आए है वृंदावन से, आप वृंदावन नही जा सकते, आपको अधिकार नही है।
लेकिन यहा उनका दर्शन कर लीजिए, वो नगर भ्रमण पर निकले है, चलिए दूर खडे होकर आराम से दर्शन कर लेना, रसिक देव का मन तो बहुत हुआ जाने का, कई वर्षो से गुरूदेव को नही देखा, लेकिन फिर विचार किया, यदि उन्होने मुझे देख लिया।
तो प्रसन्न मुद्रा से उदास ना हो जाएं, उससे बोला की सुनो, तुम जाओ और उनके शरीर को निहार लेना, और जहा से वह निकल जाएं, तो उनके पद चिन्हो की रज ले आना, फिर वह भक्त गया, और गुरूदेव को चलते हुए निहार रहा था, और जब वह निकल गए।
तो उनके जहां पद चिन्ह थे, उनकी रज को लिया, और लौटकर रसिक के पास गया, उसे बताने लगा, की गुरूदेव थोडे वृद्ध हो गए है, उनके बाल पक गए है, और धीरे-धीरे चल रहे है, सुनकर रसिक देव जी रोने लगे।
रज जैसे लिया, तो उसे अपने माथे पर लगाया, और कंठ मे लगाया, और उस रज को लेकर, पूरी रात गुरुदेव का चिंतन करते रहे, अब तो ये स्थिति हो गई, की रसिक जी गुरुदेव का इतना चिंतन करते है।
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वहा गुरुदेव के साथ जो घटना घटती है, वो यहा रसिक देव को, बैठे बैठे दिख जाता है, ऐसे ही अगले दिन, ब्रह्म मुहूर्त मे गुरूदेव स्नान करने को निकले, हाथ मे प्रकास के लिए, एक दिया लिए थे, अचानक हवा जोर की चली, दिया बुझ गया।
आगे ही एक वृक्ष की टेहली, थोडी नीचे थी, वो गुरुदेव के माथे पर लग गई, यहा ब्रह्म मुहूर्त मे, रसिक देव के आंखो से आंसू निकलने लगे। और उनके माथे पर दर्द होने लगा, तुरंत बोले अरे कोई जाओ, मेरे गुरूदेव के माथे पर, अभी अभी टेहनी लगी है।
पास ही बैठे एक भक्त ने, रसिक के माथे से हाथ हटाया, चोट वहा गुरुदेव को लगी, खून यहा रसिक देव के निकला, लोग तो सभी जानते थे, की ये रसिक देव की निष्ठा है, और फिर भी गुरुदेव, उसे स्वीकार नही कर रहे है, आज एक भक्त ने हिम्मत कर।
गुरूदेव से जाकर बोला, गुरूदेव कल रात मे आपको चोट लगी थी, गुरुदेव को हल्की हैरानी हुई, बोले तुम्हे कैसे पता, मेरे साथ तो कोई था नही, बोले भगवान यहा से कुछ दूरी पर, आपका एक शिष्य रहता है, आपके साथ कुछ घटना घटती है।
उसे पता चल जाता है, परसो आपको एक बूढी मईया ने, गर्म दूध पिला दिया था, आपका मुख जल गया था, हां जल गया था, जला आपका मुख, छाले रसिक देव को पडे थे, प्रभु उसे स्वीकार करो, गुरुदेव को तुरंत क्रोध आ गया।
बोले भाग उसका मेरे पास नाम भी मत लेना, अब तो गुरुदेव के संघ मे रहने वाले शिष्य लोग भी, आपस मे विचार करने लगे, हमारे गुरुदेव की बुद्धि को क्या हो गया है, स्वयं हमसे झूठी झूठी शिकायते करा दी, और फिर आश्रम से निकाला। वृंदावन से निकाला, वृज से भी निकाला,
अभी भी उसे स्वीकार नही कर रहे है, ये चाहते क्या है, इधर रसिक का नाम सुनते ही, गुरूदेव तुरंत क्रोध मे आ गए, बोले अभी वृंदावन चलो, अब नही रहना है यहा, तभी कुछ शिष्यो ने कहा।
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की गुरूदेव पहले कभी नही था, ऐसा स्वभाव आपका, आज रसिक पर ऐसा क्यो, बोले मुझे मत सिखाओ, कुछ बडे बडे भक्त थे, उन्होने भी गुरूदेव से कहा, और कुछ संत महात्माओ ने भी कहा, की प्रभु रसिक देव को स्वीकार कर लो, लेकिन उन्होने नही किया।
फिर अपने सभी शिष्य भक्तो के साथ, गुरुदेव वापस वृंदावन लौटे, और जाते ही गुरूदेव, पहले गोरेलाल ठाकुर जी के पास गए, आज मूर्ति मे एक अलग ही भाव दिखा, युगल सरकार प्रिया प्रियतम के नेत्रो से, आंसू गिर रहे है, नर हरदेव जी ने तुरंत पर्दा किया।
तुरंत घुटने टेक कर बैठ गए, बोले सरकार आप क्यो रुदन कर रहे है, सेवा मे कोई चूक हो गई, रसोई शुद्ध नही हो रही, आपके सिंगार मे कोई कमी हो गई, आप क्यो रुदन कर रहे है प्रभु, तब श्यामा श्याम, पर्दे के पीछे प्रकट हो गए।
किशोरी जी आग्या देकर कहने लगी, अब हमसे ये देखा नही जा रहा है, परिक्षा की पराकाष्ठा कर रहे है, इतनी परिक्षा तो श्याम सुंदर नही लेते है, इतनी परीक्षा की भावना तो, कभी देव चित्त मे नही है, आप कठोर हृदय से परीक्षा ले रहे हो, हमारी आपसे प्रार्थना है।