🎧 इस कहानी को सुनें – भाग 01:
हरपाल देव: सच्चे भक्त की अनोखी भक्ति...
एक भक्त थे, जिनका नाम था हरपाल देव, वह खूब भजन करते थे, खूब साधना करते थे, और नाम जप भी करते थे, और आस पास के गांव मे, अगर कोई कथा चल रही हो, तो वह सुनने जरूर जाया करते थे, लेकिन वह शादी नही कर रहे थे, उनकी इच्छा थी, जैसा मै भजन करता हूं।
जैसी मेरी भक्ति है, जैसा मेरा भाव ठाकुर जी के प्रति है, ऐसी कन्या मिले तो मै ब्याह करूंगा, नही तो जीवन भर ऐसे ही रहूंगा, वही पास के गांव मे उनके एक रिश्तेदार रहते थे, एक दिन हरपाल के पास आए, और बोले की तेरे लायक कन्या मिल गई है।
हरपाल जी बोले, क्या गुण है उस कन्या मे, बोले की उस कन्या ने शर्त रखी है, की मै उसी से ब्याह करूंगी, जो हर रोज एक हजार संतो को, भोजन प्रसाद कराता हो, इतना सुन हरपाल देव बोले, कि अब मुहुर्त भी नही निकलवाना, कल ही ब्याह कर दो।
ऐसी कन्या से तो मै, बिना मुहुर्त के ब्याह करूंगा, ऐसी देवी के साथ तो मेरा बढिया जीवन रहेगा, अब कन्या को लाया गया, कन्या ने एक बार फिर, हरपाल देव को और याद दिलाया, की हमारी शर्त मंजूर है ना, रोज एक हजार संतो को प्रसाद पवाना पडेगा।
हजार संतो की सेवा और बढ़ती चुनौतियाँ...
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बोले देवी हा, मै निश्चित करूंगा, अब इसके बाद दोनो ने अग्नि के सात फेरे लिए, जब दूसरा दिन हुआ, तो हरपाल जी एक हजार संतो को, भोजन कराने लगे, बढिया घर मे बडे बडे पतेले मे सब्जी बनती, और कई लोग रोटिया बनाते, और बढिया दो तीन तबेला खीर बनती।
अब संकल्प तो एक हजार संतो को, भोजन पवाने का लिया था, लेकिन कभी कभी ग्यारह सौ हो जाते, कभी कभी बारह तेरह सौ हो जाते, अब हरपाल देव किसी संत महात्मा को मना थोडी करेंगे, नही तो अपराध लगेगा, इसलिए सभी को प्रेम से पूरी व्यवस्था करते।
लेकिन हरपाल जी करते कुछ नही थे, उनका कमाई का कोई जरिया नही था, केवल उनके दादा परदादाओ का पुस्तैनी धन था, उसी को खर्च करते जा रहे थे, शुरुआत के एक साल सब बढिया चला, दो साल बढिया चला, लेकिन दो साल बाद, धीरे धीरे धन खतम होने लगा।
जैसे धन खतम होने लगा, तो हरपाल जी चिंता मे आ गए, सोचने लगे क्या करूं, पत्नी से नही बताते थे, इससे तो शर्त लगी है मेरी, इसे क्यो बताऊं अपना दुख, उन्होने अब बाहर जाकर अपने जान परिचय वालो से, कुछ कर्ज लेने लगे, वह पुराने सम्पन्न थे।
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तो किसी ने भी कर्ज देने से मना नही किया, अब अगले छह सात महिने उनकी संत सेवा, दूसरो के कर्ज से चल रही थी, अब अपने ऊपर उन्होने इतना कर्ज कर लिया, की लोग अब अपना अपना धन मांगने लगे, उनके पास तो कुछ था ही नही, वो क्या दे।
धीरे धीरे पूरे नगर मे हो गया, अब हरपाल जी, पहले जैसी स्थिति मे नही है, कर्ज देना बंद करो, ये लौटाकर देते ही नही है, अब तो ऐसी स्थिति हो गई, की धन खतम हो गया, इज्जत चली गई।
लेकिन उनकी संत सेवा नही रुकी, रोज संत सेवा चल रही थी, एक दिन बैठकर विचार किया, की अब क्या करूं, कोई कर्ज भी नही देता, गहने भी सारे बिक गए, धन भी खतम हो गया, हरपाल जी ने मन बनाया, कि अब मै चोरी करूंगा।
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भाग 02
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अब उन्होने चोरी करना शुरू किया, लेकिन वह धन की चोरी नही करते थे, गांव मे जो भी संपन्न घर थे, उनके यहा जाते, और खाने वाली समाग्री को चोरी कर लाते थे, कही से शक्कर ले आते, तो कही से आटा, कही से दाल ले आते, मतलब खाने की सभी समाग्री चोरी करते थे।
ताकी मेरा भंडारा हो जाए, धीरे धीरे गांव मे हल्ला होने लगा, की घरो से चोरी हो रही है, बडा विचित्र चोर है, धन चोरी नही करता, घरो का रासन चोरी कर रहा है, जब बात बहुत फैल गई, तो लोगो ने अपने अपने घरो मे, पहरेदारी करना शुरू कर दिया।
अब फिर से हरपाल देव चिंतित होने लगे, की अब क्या करे, धीरे धीरे हरपाल जी, इस स्थिति मे आ गए, वह उन लोगो को खोजते, जो ना कभी वैष्णव सेवा करते, और ना कभी संत सेवा करते, उन लोगो के घर जाकर, थोडा बहुत धन चुरा लेते थे, और स्वर्ण चुरा लेते थे।
उस धन से उनको घर नही बसाना था, उनका एक ही मकसद था, की संत सेवा चलती रहे, इधर ठाकुर जी रीझ गए हरपाल जी से, ठाकुर जी सोचे, की देखो ये सब चोरी कर करके, मेरे संतो को पवा रहा है, ठाकुर जी ने मन बना लिया, की इस पर अनुग्रह करने जाना है।
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भगवान सिंघासन से उठकर, तैयार होने गए, बढिया बडी बडी नकली मूछ लगाई, उपर बढिया साफा बांध करके, और थोडा पेट बाहर निकाल करके, गले मे खूब सारी जंजीर डालकर, हाथो की हर ऊंगली मे अंगूठी पहनकर, पैरो मे सोने की जूतियां पहनकर।
और करधनी सोने की पहन करके, और एक सोने का मढा हुआ डंडा लेकर, ठाकुर जी तैयार हो गए, एक बढिया सेठजी बन गए, इतने मे रुक्मिणी जी वहा आ गई, बोली भगवान, आपने बडा सुंदर स्वरूप धारण किया है, कहा जा रहे हो, बोले अपने एक भक्त से मिलने जा रहे है।
रूक्मिणी जी बोली मै भी चलूंगी, भगवान बोले देवी, तुम मत चलो, तुम उसे पहचान नही पाओगी, तुमसे अपराध बन जाएगा, नही प्रभु भक्त के दर्शन करने मै तो जाऊंगी, भगवान बोले तो फिर जल्दी तैयार हो जाओ, रुक्मिणी जी ने भी, एक सेठानी का रूप धारण किया।
और यहा हरपाल जी की स्थिति क्या थी, संत सेवा के लिए, कही से भी धन नही मिल रहा था, हरपाल जी ऐसे ही एक मार्ग पर बैठ गए, और मन मे विचार किया, की कोई धनवान यहा से निकलेगा, तो उसे लूट लूंगा, और तुरंत भाग जाऊंगा, और सारा धन संत सेवा मे लगा दूंगा।
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उस मार्ग से और कोई तो आया नही, ठाकुर जी स्वयं सेठ बनकर आ गए, पूरे सोने से लदे है, और क्षम क्षम चलते आ रहे है, उनके गहने ही बज रहे है, हरपाल जी ने जैसे ही नेत्र खोलकर के देखा, वह रूप और गेहनो से लदे चले आ रहे।
तुरंत मन ही मन सोचा, की ये तो एकाद साल की, व्यवस्था आ रही है, सामने से, इतने मे पीछे से रुक्मिणी जी भी चली आ रही थी, आरे वाह, ये तो पांच दस साल की व्यवस्था आ रही है।
अगर ये दोनो लूट लिए जाए, तो दस साल चोरी नही करनी पडेगी, हरपाल जी के बगल मे जैसे ही ठाकुर जी पहुंचे, हरपाल जी बोले भईया जय श्री कृष्णा, ठाकुर जी नाराज हो गए।