हमारी कहानी की शुरुआत, महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव से होती है, जहा एक भक्त श्री त्रिलोचन जी रहा करते थे, वह एक परम संत सेवी भक्त थे, वह पंढरीनाथ जी के चरणो मे ही रहा करते थे, पती पत्नी दोनों ही परम भक्त थे, दुर्भाग्यवश उनके कोई संतान नही थी, लेकिन वह एक बडे खानदानी थे, उनके पास खूब सारा धन, और सोन चांदी था, तो उन्होने मन बनाया, की पंढरीनाथ भगवान के दर्शन को, जो भी वैष्णवी आया करते थे, उनके भोजन प्रसादी की पूरी व्यवस्था हमारे घर मे होगी,
ऐसे ही एक दिन श्री त्रिलोचन जी रास्ते मे खडे हो गए, और जब कुछ वैष्णव भक्त, पंढरीनाथ भगवान के दर्शन को आए, उनको प्रेम पूर्वक अपने घर बुलाया , और बढ़िया उनको प्रसाद खिलाया, और जब पंढरीनाथ भगवान के दर्शन कर भक्त वापस जाते थे, तो रास्ते मे जो भी संत महात्मा मिलते, उनसे बता दिया करते, भी भईया पंढरीनाथ के दर्शन को जाते हो, तो एक बार त्रिलोचन जी के यहा जाना, वह संतो के अनुकूल ही भोजन प्रसाद बनाते है, सभी संत महात्मा कहते ये तो बडी अच्छी बात है, धीरे धीरे समय अनुकूल उनकी बडी ख्याति हो गई,
अब तो जितनी भीड़ पंढरीनाथ मंदिर मे होती, उतनी ही भीड़ त्रिलोचन जी के घर मे होती, सभी संत भक्त उनके यहा प्रसाद पाने के लिए जाते, त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी बडी प्रसन्न होते, की हम इतने संतो की सेवा कर पा रहे है, ये हमारे सौभाग्य है, ऐसे ही समय बीतता गया, अब दोनों वृद्ध अवस्था मे प्रवेश कर गए, अब वह इतनी समाग्री बना नही पाते थे, उनके यहा कोई सेवक नही था, वह स्वयं पती पत्नी दोनों मिलकर बनाया करते थे, वृद्ध अवस्था ध्यान ना रहने पर कभी कभी, उनकी दाल जल जाती, रोटीयां सेंकते सेंकते वह जल भी जाती थी, इस अवस्था मे थकान भी जल्दी लग जाती है, लेकिन वह प्रसाद पवाते तो थे, संत जन बेचारे प्रसाद प्रेम से ग्रहण करते, स्वाद नही होने के कारण, जैसा था पाते, और थोड़ा बहुत छोड़कर चले जाते,
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धीरे धीरे संतो का आगमन अब कम होने लगा, अब त्रिलोचन जी बहुत परेशान होने लगे, की संत हमारे घर आना बंद हो गए, अब क्या करें, कुछ देर दोनो ने विचार किया, और फिर उन्होंने अपने घर के बाहर लिख दिया, की संत जन की सेवा के लिए, हमे एक सेवक की आवश्यकता है, यदि को सेवा भावी सेवा करना चाहता है, तो भीतर आकर सम्पर्क करे, तभी ये बोड को पढ़ लिया, हमारे पंढरीनाथ भगवान ने, फिर उन्होंने एक छोटे से बालक का रूप धारण किया, और त्रिलोचन जी के यहां पहुंच गए, त्रिलोचन जी सामने ही बैठे थे, भगवान बोले साहब जी, आपने बाहर लिख रखा है, की जो भी संत सेवा के इच्छुक हो, तो भीतर आकर सम्पर्क करें, मुझे सेवा करनी है, त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी देखे, कितना छोटा बालक है, कितना प्यारा
है, बोले तुम्हारे माता पिता कौन है, होंगे तो पता नही, मैने कभी अपने माता पिता को नही देखा, मै अकेला ही ही, ना मेरे कोई भाई है, ना कोई मित्र है, ना कोई बंधूं है, मै अकेला ही हूं, त्रिलोचन जी की पत्नी को दया आ गई, अरे राम राम अकेला बालक, अच्छा ठीक है तुम यहा सेवा कर लेना, लेकिन कुछ नियम है, उन्हे सुन लो, सबसे पहले अपना नाम बताओ तुम्हारा नाम क्या है, वो तो विठ्ठल भगवान ही है, छोटे से बालक के रूप मे, बोले मेरा नाम अंतर्यामी है, त्रिलोचन जी बोले नाम से तो ऐसा लग रहा है, की सच मे अंर्तयामी है,
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अच्छा बेटा अंतर्यामी सेवा करोगे, हा मईया सेवा करना तो मेरा जन्म जन्म का काम है, मै यही तो करता हूं, संतो की सेवा करना, वैष्णवो की सेवा करना, भक्तो की रक्षा करना, ये मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, मै इसी के लिए आता हूं, त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी एक दूसरे का मुख देखकर बोले, इतना अच्छा बालक है, लेकिन बोलता कैसे है, ठाकुर जी सत्य ही बोल रहे थे, उनकी पत्नी बोली सुबह एक सब्जी बनानी पड़ेगी, दाल बनानी पड़ेगी, और हमारे यहा लगभग सौ ढेड़ सौ संत आते है, उन सभी के हिसाब की रोती बनानी पड़ेगी, और सब बेटा तुमको करना पढेगा, बेटा हम थोडा बहुत सहायक कर देंगे, हमसे ज्यादा बनता नही है, तुमको ही सब सिद्ध करना पड़ेगा,
भगवान बोले आप बिल्कुल निश्चिंत रहो, हम खीर बनाएंगे, रबड़ी बनाएंगे, रायता भी बना दिया करेंगे, हम और भी दो चार सब्जी बना दिया करेंगे, त्रिलोचन जी बोले इतना छोटा बालक, तुम सब जानते हो, भगवान बोले हां, हमसे सब आता है, दुनिया का ऐसा कोई काम नही जो हमसे नही आता है, और सुनिए हम झाड़ू पोछा बर्तन भी कर दिया करेंगे, त्रिलोचन जी बड़े खुश हुए, बहुत बढ़िया सेवक मिला, ये तो सब काम करता है, तभी भगवान बोले लेकिन हमारी सर्त सुनो, त्रिलोचन जी बोले तुम्हारी भी सर्त है, बोले हां, तुम्हारी क्या सर्त है भईया, पहली सर्त ये है, हम दुनिया को बनाकर खिलाएंगे, लेकिन हमे आपको बनाकर खिलाना पड़ेगा,
हम अपने हाथ का बना नही पाते, ठाकुर जी बोली, हम सारे संतो को बनाकर पवाएंगे, लेकिन हम अपने हाथ का बना नही पाते, आपको हमारे लिए बनाना पड़ेगा, त्रिलोचन जी की पत्नी बोली, छोटा सा बालक, इसके आधे हाथ का पेट है, एक रोटी मे झिक जाएगा, ठीक है लाला तुम चिंता मत करो, तुम्हारे लिए हम बना दिया करेंगे, हमारी एक सर्त और सुन लीजिए, त्रिलोचन जी बोले क्या, हम कितना भी खाए हमे टोकना नही कभी, कि इतना क्यों खा रहे हो, त्रिलोचन जी बोले हम क्यों टोकेंगे, तुम बढ़िया दो तीन रोटी खा लिया करना,
दो तीन रोटी तो हमारे ढांड मे छुप जाती है कहीं, हम तो प्रेम पूर्वक खाते है, बस आप लोग अपना नियम याद रखना, की इतना क्यो खा रहे हो, और सुनो अगर हमारे सामने आपने कहा, तो अपराध तो बनेगा ही, लेकिन किसी और से जाकर कह दिया, की बहुत खाता है ये, तो उसी दिन अंतर्ध्यान हो जाएगे, हम उसी दिन घर छोड़कर चले जाएगे, फिर ढूंढते रहना सेवक, त्रिलोचन जी बोले, हम क्यों कहेंगे, हम तुम्हे वचन देते है, तुम प्रेम से रहे, सबकी सेवा करो, हम कभी नही कहेंगे की इतना खाता है, भगवान बोले तो ठीक है, कल से सेवा शुरू, अगली सुबह त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी ब्रह्मा मुहूर्त मे उठे, तो देखा महाराज रसोई मे लगे है, कमर कस के, मुंह मे कपड़ा बांध करके, हाथ मे एक करछुली लिए बना रहे है, एक कढाई मे दाल बना रहे है, और फिर दूसरी कढाई पर जाते है, वहा खीर बना रहे है, फिर दौड़कर जाते है, वहा पूड़ी उछाल कर रख रहे है,
त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी देखे, अकेले बालक सब बना रहा है, कितना अच्छा बालक है, करीब आठ बजे से संतो आना प्रारंभ हुआ, ठाकुर जी अकेले ही पत्तल लेकर दौडते, और सभी संतो को पत्तल बाट आते, और फिर अकेले ही सभी समाग्री को लेकर जाते है, और सभी संतो की बांटते है त्रिलोचन जी अगर कोई समाग्री लेकर जाएं, तो ठाकुर जी बीच मे ही आ जाते, बाबूजी आप जाकर बैठो मै बांट रहा हूं ना, आप उठकर मत आओ, आप आओगे सब फैल जाएगा, मै कर रहा हूं ना सब, अकेले ठाकुर जी सब कुछ कर रहे थे, त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी बडी प्रसन्न, जय हो विठोबा, हमे तो ऐसो लगे, जैसे साक्षात तुम ही आ गए हो, कितनी कृपा हो रही है,
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देखो कैसा सेवक मिला है, हमे भले ही ठाकुर जी ने संतान नही दिया है, लेकिन ऐसा सेवक मिला दिया है, जिससे परिपूर्ण आनंद हो गया है, सभी संत महात्मा खूब प्रेम से भोजन गृहण किया, जब सभी संत भोजन पा चुके थे, फिर उन्होंने त्रिलोचन जी से कहा, वा त्रिलोचन जी हमने आपके यहा बहुत बार पाया, लेकिन आज के जैसा प्रसाद हमने कभी नही पाया, त्रिलोचन जी बडे प्रसन्न हुए, सभी संत चले गए, भगवान उठाया झाड़ू पोंछा, और बढ़िया से फर्स को साफ किया, सभी दरी वगैरा को समेट कर रख दिया, पत्तलों को व्यवस्थित कर दिया, और सारे बर्तन साफ कर दिया, और अपने हाथ पांव धुले, सामने आकर बैठ गए, बोले मईया अब हमारी सेवा पूर्ण हो गई, अब हमारी पेट पूजा करो, अब आप लगो रसोई मे हमारे लिए बनाओ, मईया बड़े भाव मे आ गई,
अरे मेरे लाला मै अभी बनाकर लाती हू, उनकी पत्नी रसोई मे गई, और सुंदर सुंदर खीर बनाई, सुंदर सुंदर सब्जी बनाईं, और दस पांच पूडी बना दिया, सब कुछ उनकी पत्नी ने थोडा थोडा बनाकर तैयार किया, और एक थाली मे उन्होने सब कुछ परोस दिया, और ठाकुर जी के सामने रख दिया, अब अंतर्यामी भगवान ने खाना शुरू किया, खीर को एक बार पी पी लिया, पूड़ी सब्जी जल्दी से खतम कर दिया, और लाओ मईया भूख लगी है, जल्दी लाओ, मईया ने लाकर और रख दिया, भगवान ने फिर एक बार मे सब चट कर दिया, उनकी पत्नी ने इतना ही बनाया था, सब खतम हो गया,
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मईया और लगाओ आटा जल्दी जाओ, बनाओ मेरी लिए, आपसे हमने कहा था हमे पवाना पड़ेगा, नही नही बेटा तू बैठ, मै तेरे लिए अभी बनाती हूं, मईया फिर गई और आटा लगाया, और सब्जी बनाईं, खीर बनाईं, और लाकर ठाकुर को फिर से दिया, ठाकुर जी ने दो मिनट मे सब सब खाली कर दिया, खूब खाया खूब खाया, माईय आटा लगाती रही, एक आसान मे अखंड चार घंटे बैठकर भोजन किया, फिर बोली ठीक है अब हो गया, अब लाओ तेल थक गए होंगे, हाथ पैरो मे मालिश कर दूं, फिय उन्होंने तेल लिया और बढ़िया मालिश किया, त्रिलोचन जी की पत्नी ने पहले दिन तो कुछ नही बोला, जब दूसरे दिन भी ठाकुर जी ने इतना ही भोजन खाया, तीसरे दिन बोली ये क्या कर लिया हमने, सुबह जितना ही भोजन बनता था, उतना तो ये अकेले ही खा लेता है , सुबह संत को तो ये बना देता, लेकिन साम मे जब ये बैठता है, तो उतना ही अकेले खा जाता है,
त्रिलोचन जी बोले नही नही, तुमको याद नही उसने कहा था, कभी कहना नही ऐसा, हां हां मै ध्यान रखूंगी, नही कहूंगी अब, इधर अंतर्यामी भगवान, उनके घर के सारे काम को खूब प्रेम से कर रहे है। महिना डेढ़ महीना बीत गया, खूब आनंद से सेवा चल रही थी, एक दिन त्रिलोचन जी की पत्नी पड़ोस मे किसी के पास बैठी थी, पड़ोसी तो हमेसा होते ही है ऐसे, घर की बात बोलते रहते है, आपके घर मे आज कल बडी खुशहाली आ गई है, त्रिलोचन जी को देखो चेहरा पर कितना तेज आ गया, लाल लाल टमाटर जैसे गाल हो गए है, अरे वो आया है ना अंतर्यामी सेवक हमारा, बहुत सेवा करता है,
पूरा प्रसाद पानी वही बनाता है, और उनके लिए बढ़िया से जूस निकालता है, और अच्छे से मालिश करता है, इसलिए वो ऐसे हो गए है, पड़ोसी बोली त्रिलोचन जी बढ़िया हो गए है, तूम सूख गई हो, तुम इतनी पतली दुबली क्यो हो गई, मेरा दुख कौन जाने, वो सबकी सेवा करता है, पर अपनी सेवा मुझसे करवाता है, अरे छोटा सा तो है, ऐसे मटक मटक के सब्जी लेने जाता है, हम तो उसे देखने के लिए खडे रहते है, कितना अच्छा बालक है, कई लोग उसे देखने आते है, जैसे सब्जी परस रहा है, कैसे पूड़ी परस रहा है, छोटा सा तो है, उसकी क्या सेवा करनी पड़ती है, वा री बहन तुम क्या जानो, दो चार पांच दस किलो की रोटी, कब खा जाता है, पता भी नही चलता है, उसका पेट कुआं है, समुद्र है पता ही नही चलता है, इतना खाता है इतना खाता है, चार घंटे की समाधि पर बैठता है एक साथ, थाली नही थाल लगाना पढता है उसके लिए, इतना खाता है,
जैसे ही मईया ने कहा दिया, ईतना खाता है, ठाकुर जी अंतर्ध्यान हो गए, साम का समय, त्रिलोचन जी ने बुलाया, अंतर्यामी, ओ बेटा अंतर्यामी जल्दी आओ साम हो गई है, आओ थोडी देर बैठे संत संग करे कीर्तन करे, अंतर्यामी नही आए, त्रिलोचन जी ने पूरे घर मे देख लिया ठाकुर जी नही मिले, रसोई मे देख नही मिले, पड़ोसियों से पूछा, उनको भी नही पता, सब्जी मंडी देख आए नही मिले, पूरा पंढरपुर देख लिया लेकिन ठाकुर जी नही मिले, त्रिलोचन जी उदास हताश बैठ गए, पत्नी से कहने लगे, पता नही कहा चला गया, हम सब कही देख लिया, कही नही मिला, देवी तुमने ये तो नही कह दिया था, की इतना खाते है, नही नही मै तो कान पकड़ती हूं, मै कभी नही कहती,
बोले किसी और से तो नही कहा था तुमने, नही नही मै कभी नही कहती, किसी और से तो नही कहा है, क्योंकि उसने वचन दिया था, की ऐसा कहोगी तो मै चला जाऊंगा, तभी पत्नी बोली हां आज एक गलती हो गई, पड़ोसी के पास बैठी थी, उससे बात करते करते मेरी मुख से निकल गया, कि उसके लिए बहुत बनाना पड़ता है, दस दस किलो आटा खा जाता है, इतना खाता है, ये मुंह से निकल गया था, त्रिलोचन जी समझ गए, तभी तो उसको पता चल गया होगा, इसलिए वो चला गया है, त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी दो पंढरीनाथ भगवान की डेहली पर जाकर बैठ गए, हे नाथ, हे पंढरीनाथ, आपने हमे संतान नही दिया, पुत्र नही दिया, पुत्री नही दिया जीवन मे, हमने कभी उसकी उपेक्षा नही की, हमने कभी आपसे शिकायत नही किया, की आपने हमे संतान क्यो नही दिया, पर नाथ एक सेवक हमारे जीवन मे आया, जब से वो आया संतो की अच्छी सेवा होने लगी, हमारे यहा कीर्तन होने लगा, सत्संग होने लगा, हमारे यहा खूब आनंद की उमंग होने लगी,
भगवान उस सेवक ने, हमे आपसे और प्रेम करा दिया, हम आज आपसे दोनो भीख मांग रहे है, हमे कुछ मत दीजिए, आप भी मत मिलिए, हमे इस जनम मे। लेकिन हमारे उस सेवक, अंतर्यामी को हमे दे दो भगवान, वो जहा कही भी हो, उसे हमारे पास भेज दो भगवान, ऐसा कहकर दोनो रोने लगे, भगवान पंढरीनाथ के चरणो मे रूदन करने लगे। बहुत रोए वहा पर, इतने मे ही स्वर सुनाई दिया, बाबूजी, इतना सुनते ही दोनो ने पीछे मुडकर देखा, पीछे तो कुछ दिखा नही, अरे इधर देखिए, वापस पंढरीनाथ भगवान की तरफ देखा।
भगवान के ही स्थान पर, वही अंतर्यामी बालक खडा हुआ है, सामने खडे होकर, उनको आसीस दे रहा है, त्रिलोचन जी तो भाव विभोर हो गए, कैसे कृपा नाथ आपकी, बोले आप ही थे क्या, हां मै ही था। इतनी अच्छी संत सेवा, इतनी अच्छी खीर, अच्छी पूडी और सब्जी, और आपकी जो सेवा, इतने अच्छे अच्छे सत्संग और कीर्तन, ये मेरे अलावा और कौन कर सकता है, संतो की सेवा तो मै ही करता हूं ना। आपने संत सेवा के लिए सेवक मांगा था, इसलिए मै ही आपके यहा चलकर के आ गया, और फिर त्रिलोचन जी और उनकी पत्नी को, भगवान ने अद्भुत कृपा करके क्रतार्थ किया, इस कहानी मे भगवान की एक अद्भुत कृपा का, मार्गदर्शन देखने को मिलता है, यदि कोई भक्त, निस्वार्थ भाव से सेवा करता है, तो उसके ऊपर ठाकुर जी की, असीम कृपा रहती है, इस छोटी सी कहानी से आपको क्या सीखने को मिला, एक प्यारे से कमेंट के साथ हमे जरूर बताइएगा, जय श्री कृष्णा।
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