🎧 इस कहानी को सुनें – भाग 03:
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जब हरपाल पर भगवान ने क्रोध दिखाया...
क्या भगवान का नाम बोलते हो, सुबह सुबह से, तुम सब लोग पाखंडी हो, ढोंगी हो, और हमने सुना है, कि इस गांव मे एक रहता है, जो चोरी डकैती करता है, और फिर कहते है, कि संत सेवा करता है, ऐसी क्या बात की चोरी, करता तो चोरी है ना, भले ही उससे संत सेवा करता हो।
नाम उसका हरपाल है, हम सब जानते है, भगवान का नाम मत लो हमारे सामने, हरपाल जी समझ गए, की ये तो बिल्कुल भगवत विमुख है, इसकी तो एक अंगूठी भी नही छोडनी मुझको, इसका तो सब लेकर जाऊंगा, अगर ये बदले मे जय श्री कृष्णा बोलता।
तो एकाद गहना छोड देता इसका, लेकिन ये इतना बिकर रहा है, मै नही छोड़ूंगा, हरपाल जी बोले, हां भईया रहता तो है, एक डकैत इस गांव मे, और वो कभी भी आ जाता है, लेकिन एक जंगल से होते हुए मार्ग है, यहा से बिल्कुल भी पता नही चलेगा।
और पूरा गांव पार हो जाओगे, उसका रास्ता मुझे ही पता है, सेठ जी बोले, तो तुम हमको पार करा दो, हरपाल जी बोले मै पार तो करा दूंगा, मेरे घर कुछ मेहमान आए है, उनके भोजन आदि की व्यवस्था के लिए, मै तो बजार आया था, मेरे पास धन नही है।
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अगर आप मुझे कुछ दे देंगे, तो मै घर पर व्यवस्था करके आऊंगा, और तुरंत आपको लेकरके, गांव पार करा दूंगा, ठाकुर जी ने, तुरंत उसको कुछ सोने की मोहरे दी, बोले जाओ, जल्दी तुम अपने घर की व्यवस्था कर आओ, हरपाल जी तुरंत बजार से कुछ समाग्री को लिया।
और जल्दी से घर पहुचाया, और पत्नी से बोले, की ये लो, आज संतो को भोजन प्रसाद कराना, मै आ रहा हूं, कोई पूछे तो बता देना, की संत सेवा की व्यवस्था करने गए है, और तुरंत वही लौटकर आए, भगवान तो वही उसका इंतजार कर रहे थे, बोले चलो मेरे साथ।
और साथ ही चलना भटक नही जाना, ठाकुर जी और रुक्मिणी जी दोनो चलने लगे, अच्छा घना जंगल, जो देखने मे भयावह लग रहा था, और जैसे ही बीच जंगल मे पहुंचे, हरपाल जी ने पीछे मुडकर देखा, दोनो चले आ रहे है, हरपाल जी तुरंत दहाडने लगे।
और एक उठाई बडी लाठी, और अपना स्वाफा सामने बिछा दिया, भगवान ने तुरंत हाथ जोडकर बोले, भईया ये क्या कर रहे हो, बोले मै ही हरपाल हूं, सारी समाग्री निकालो, डाल दो यहा पर, एक चीज भी मत छोडना, नही तुम जानते नही हो, मै क्या करूंगा।
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ठाकुर जी थर थर कापने लगे, रुक्मिणी जी मन मे मुस्कुराए, देखो कैसा नाटक कर रहे है, रावण के सामने नही डरे, कुंभकरण के सामने नही डरे, ये साधारण हरपाल के सामने डर रहे है, भगवान तो मन की समझ जाते है, इशारा किया।
बोले तुम भी कांपो, रुक्मिणी जी बोली क्यो, अरे देवी भक्त है, इसने हमारे लिए सब लुटा दिया, सभी संतो को खूब खिलाया पिलाया, खूब सेवा की, इसके सामने भयभीत होने मे, कोई लज्जा नही है।
अब लक्ष्मी नारायण दोनो कांप रहे, हरपाल बोल रहा सब निकालो, भगवान ने अपने सभी सोने के समान, उतार कर रख दिया, और रूक्मिणी जी ने भी, अपने सभी जेवर उतार दिया, भगवान अपना डंडा लिए थे, हरपाल बोला ये भी रखो।
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भाग 04
🎧 इस कहानी को सुनें – भाग 04:
अरे बेटा बुढापे की लाठी, हम गिर जाएंगे, अरे कुछ नही गिरोगे रख दो, जीवन मे कभी राम नाम किया नही, जय श्री कृष्ण बोलने पर चिल्ला रहे थे मुझको, रखो जल्दी इसे, सारा सोन चांदी, और कीमती आभूषण, सब उनके स्वाफा मे रख दिया।
हरपाल ने सोचा अब बढिया है, आठ दस साल की व्यवस्था हो गई, तभी हरपाल जी की नजर, भगवान की कनिष्ठ उंगली मे एक अंगूठी थी, बोले ये कहा बचाकर ले जा रहे हो, इसे भी उतारो, अरे भईया ये हमारे बचपन की अंगूठी है, ये निकलेगी नही,
इसको तो हम बाहर, निकाल ही नही पाएंगे, इसको तो रहने दो हमारे पास, बोले तुम क्या जानो, इस अंगूठी से कम से कम, एक हफ्ता संत सेवा होगी, और तुमपर तो दया करनी ही नही है, बहुत चिल्लाए थे मुझपे, जल्दी निकालो इसे।
भगवान उसे निकालने का प्रयास करने लगे, वो निकल नही रही थी, हरपाल जी ने उंगली पकडी, बोला मै इसे काट देता हूं, ये ऊगली क्या ही काम की है, तुम करते ही क्या हो, हरपाल ने लिया चाकू, और काटने ही वाला था।
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इतने मे ही द्वारिका धीस भगवान, शंख चक्र धारण कर प्रकट हो गए, रुक्मिणी जी महा लक्ष्मी जी के रूप मे प्रकट हो गई, हरपाल कुछ समझ ही नही पाया, तुरंत दूर हटा, बोला नाथ आप, बोले हम साक्षात्कार द्वारिका धीस, और ये साक्षात्कार रुक्मिणी जी।
हम तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर, तुमको दर्शन देने आए है, हरपाल जी घुटने के बल बैठ गए, रोने लगा, अपने सिर को वही पटकने लगा, नाथ कितना बडा अपराध हो गया, मैने अपने ही प्रभु को लूटा, मै अपने स्वामी के साथ डकैती कर रहा था।
मै अपने प्रभु की उंगली काटने पर, मजबूर हो गया था, इसका मतलब मै पापी हूं, मेरा पाप इतना प्रचंड हो गया, की मै आपके रूप को नही पहचान पाया, भगवान हल्की स्माइल के साथ बोले, नही हरपाल, तुमने कभी अपने लिए थोडी किया।
तुम तुम्हारी पत्नी भूखे सो जाते हो, लेकिन संतो को भूखा नही जाने देते, ठीक है भले तुमने वह गलत मार्ग अपनाया, जो नही अपनाना चाहिए था, परंतु तुम्हारा उसके प्रति, कोई उद्देश्य तो नही था ना, मेरे संत जनो की ही सेवा थी, आज भले ही तुम्हे ग्लानि हो रही है।
लेकिन आपको एक बात बता दे, जिसके भी धन से संत सेवा होती है, भले ही किसी ने बनाया हो, या किसी ने परोसा हो, लेकिन पुन्य उसी को मिलता है, तुमने तो गांव के नगर के उन लोगो को, जो कभी संत सेवा नही करते, उनके धन को चुरा-चुरा कर, पुन्य बांटा है उनको।
तुमने कुछ गलत नही किया है, हा यदि तुम अपने लिए लेते, तो पाप हो जाता, लेकिन तुमने तो एक रूपया नही लिया, सब संतो के प्रायोग मे लगा दिया, हम तुमसे बहुत प्रसन्न है, हरपाल जी सिर रखकर रो रहे थे, भगवान ने बोला, अब हमने दर्शन दे दिया।
अब हम जाए, और सुनो ये धन दस साल का नही है, इससे तुम जब तक जीवित रहोगे, तब तक रहेगा, तुम्हारी संत सेवा चलती रहेगी, भगवान जाने लगे, तभी हरपाल चरणो मे गिर गए, आज मै आपके दर्शन कर पाया, संत सेवा कर पाया।
इसमे सबसे बडा योगदान मेरी पत्नी का है, अगर उसने नियम नही बनाया होता, तो आज सायद मै कभी नही करता, आप अगर उसको बिना दर्शन दिए जाएंगे, तो मै उसको क्या मुंह दिखाऊंगा, मै उससे जाकर कह भी नही पाऊंगा, कि आप मुझसे मिले।
उसकी वजह से आप मिले हो, कृपा करके आप उसे दर्शन दे दो! भगवान बोले ठीक है, तुरंत भगवान ने छोटे-छोटे बालको का रूप धारण कर लिया, और हरपाल जी की गोद मे बैठ गए, और हरपाल जी ने गोद मे ले लिया, और उनको अपने घर मे लेकर आए।
बोले अरे देवी सुनो, देखो कौन आए है, जैसे उसने बाहर आकर देखा, तो नन्हे से ठाकुर जी, और नन्ही सी रुक्मिणी जी, गोद मे बालको की भांती बैठे है, बोली अरे, इतने सुन्दर सुन्दर बालक, अरे ये बालक नही है, साक्षात्कार जगन्नाथ भगवान, साक्षात्कार रूक्मिणी जी है।
तुरंत ठाकुर जी अपने रूप मे प्रकट हो गए, और फिर दोनों दम्पति को दर्शन देकर, भगवान वहा से प्रस्थान कर गए, कल्पना कीजिए की एक भक्त, अपनी भक्ति से भगवान को बुला लेता है, इसलिए अगर हम पर भगवान के प्रति, एक अटूट विश्वास है।
दुनिया क्या कहती है, इस पर ध्यान ना ही दो, तो आपके लिए अच्छा है, क्योकि भगवान की भक्ति मे, किंतु परंतु जैसे शब्द यूज नही होते, बोलो भक्त वत्सल भगवान की जय, मिलते है अगली फिर एक और भगवान की लीला के साथ, जब तक के लिए राधे राधे।