🎧 इस कहानी को सुनें – भाग 06:
अगले ही दिन सत्यव्रत ने शक्ति को अपने पास बुलाया, और उन्हे स्वर्ण आदि दिखलाया, ये देख शक्ति ने पूछा, राजन आप ये सब मुझे क्यो दे रहे हो, दान देने के लिए कारण भी होना चाहिए, अकारण दान लेना पाप है, रिषी पुत्र आपसे एक प्रार्थना है,
मुझे अपने शरीर सहित स्वर्ग जाना है, कृपा करके उसका मार्ग बताए, फिर शक्ति ने सत्यव्रत से पूछा, राजन इस विषय मे आपकी चर्चा पिताजी से हुई थी, उन्होने क्या बताया था, पुत्र अब वो वृद्ध हो चुके है, अब इन सब चीजो मे, वह भयभीत हो जाते है,
पिताश्री भयभीत, यह असंभव है राजन, सत्यव्रत ने शक्ति से स्वर्ग जाने के लिए, उसने अनेक झूड बोले, और तभी शक्ति सब समझ गया, अब वह क्रोध मे आकर सत्यव्रत को श्राप दे दिया, की तुम इसी क्षण त्रिशंकु बन जाओ,
यही से राजा सत्यव्रत का नाम त्रिशंकु पडा था, त्रिशंकु का अर्थ होता है, की बीच मे अटके रहना, ना इधर का, और ना उधर का, यहा घोर तपस्या करते हुए विश्वरथ को, कई वर्ष बीत गए, स्वर्ग मे चारो तरफ विश्वरथ की ध्वनि सुनाई दे रही थी,
तभी आदि शक्ति गायत्री मां प्रकट होती है, उनके दर्शन कर उनके रूप को देख, विश्वरथ के ह्रदय मे एक दिव्य ग्यान प्राप्त हुआ, और तभी ही विश्वरथ ने गायत्री मंत्र को जन्म दिया, माता ने विश्वरथ को बताया, पुत्र तुम ब्रह्मा के वंशज हो,
तुम्हारे ग्यान और तपस्या की चर्चा, तीनो लोको मे है, यही से ही माता ने विश्वरथ को विश्वामित्र बना दिया, एक राजा जो आगे चलकर, महर्षि विश्वामित्र के नाम से जाना जाने लगा, इधर दर दर की ठोकरे खाता त्रिशंकु फिर रहा था,
अपने आप को सभी से बचा रहा था, और एक जगह बैठकर अपने किए से पच्छता रहा था, की जब मेरे कुल गुरू ने मुझे मना किया था, तो फिर मैने अपने मन की अभिलाषा को क्यो नही रोका, और रिषी पुत्र को लोभ क्यो दिया,
अब मेरा जीवन और मुझे कौन बचाएगा, उस समय विश्वामित्र की प्रसिद्धि बहुत फैल चुकी थी, तो त्रिशंकु ने सोचा, एक बार विश्वामित्र की शरण मे जाता हूं, त्रिशंकु जोरो से विश्वामित्र को चिल्लाने लगा, और इधर उधर भटककर खोजने लगा,
जब त्रिशंकु को विश्वामित्र दिखे, तो तुरंत उनकी शरण मे गिर गया, और अपना पूरा हाल बताया, ये भी बताया, की कुल गुरू वसिष्ठ जी ने उन्हे मना कर दिया है, ये सुनते ही विश्वामित्र और क्रोधित हो गया, तुम्हे वसिष्ठ ने मना किया है, सत्यव्रत हम तुम्हे वचन देते है,
की तुम्हे शरीर सहित हम स्वर्ग पहुचाएंगे, हम एक यग्य करेंगे, जिससे तुम शरीर सहित स्वर्ग जाओगे, अब ये बात सभी तरफ फैल गई, की विश्वामित्र एक यग्य करा रहे है, बडे बडे संत महात्माओ ने उस यग्य मे भाग लिया,
कुछ ने इसका विरोध किया, की यह प्रकृति के नियम के विरूद्ध है, यहा विश्वामित्र के सानिध्य मे यग्य शुरू हुआ, इधर इंद्र सहित सभी देवताओ मे, खलबली मचने लगी, की हम इसे स्वीकार नही करेंगे,
इस तरह मे स्वर्ग और मृत्यु लोक मे, अंतर क्या रह जाएगा, ऐसे मे प्रत्येक प्राणी, स्वर्ग आने की लालसा रखेगा, यहा बीच यग्य से ही, अग्नि देव ने अपनी ज्योति बुझा दी,
🎧 इस कहानी को सुनें – भाग 07:
ये देख विश्वामित्र को बहुत क्रोध आया, और बोले अग्नि देव, तुम्हारा इतना दुस्साहस कैसे हुआ, मेरे यग्य को अस्वीकार किया, तभी अग्नि देव प्रकट हुए, और बोले विश्वामित्र आप क्रोधित ना हो, मै आपकी अहूती कहा ले जाऊं,
किसी भी देवी देवताओ को स्वीकार ही नही है, इतना कहकर अग्नि देव चले गए, इसके बाद क्रोध मे विश्वामित्र बोले, की मै गायत्री देवी का तप करूंगा, और उन्हे खुश करूंगा, गायत्री माता कृपा करके तुम्हे स्वर्ग पहुचा देंगी,
इसके बाद विश्वामित्र ने मां गायत्री की घोर तपस्या की, जब मां प्रकट हुई, तो विश्वामित्र ने माता से कहा, मां मेरे वचन का मान रखो, मैने त्रिशंकु को वचन दिया है, की उसे शरीर सहित स्वर्ग पहुचाऊंगा, देवताओ ने मेरा स्वर्गा रोहण यग्य को अस्वीकार किया है,
माते आप कृपा करो, तब गायत्री मां ने उसे समझाया, पुत्र यह सीमा का उलंघन होगा, शरीर का स्थान मृत्यु लोक मे है, स्वर्ग जाने के लिए प्रत्येक प्राणी को, अपने शरीर को पांच तत्वो को वापस करना पडता है, जिन्होने उसे रूप दिया है,
मै इन सभी का अपमान नही कर सकती, विश्वामित्र ने माता से बार बार प्रयास किया, की त्रिशंकु को स्वर्ग पहुचाओ, जब माता उसे हर बार विनम्र भाव से समझाती रही, तो विश्वामित्र को अधिक क्रोध आ गया, और उसी क्रोध मे उसने माता को श्राप दे दिया,
क्रोध के पश्चात भी माता ने, विश्वामित्र को समझाया, की यह श्राप मेरे लिए नही है, ये श्राप तुमने उन सभी को दिया है, जो मेरी पूजा करते है, जब अंत मे विश्वामित्र को अपनी गलती का अभास हुआ, तो माता से हाथ जोडकर माफी मांगी, और कहा,
माते श्राप वापस तो नही ले सकता, लेकिन उसे कम जरूर कर सकता हूं, जब माता चली गई, तो विश्वामित्र ने एक बार सभी देवताओ से फिर से प्रार्थना की, मेरा स्वर्गा रोहण यग्य को स्वीकार करो, इधर इंद्र सहित सभी देवता उसका उपहास उडा रहे थे,
विश्वामित्र का क्रोध बढता ही जा रहा था, की मेरे दिए वचन का अपमान हो रहा है, जिस आश्रम मे विश्वामित्र ने, त्रिशंकु को आश्रय दिया था, वह वहा से दूर जंगल की ओर निकल गया, जब एक शिष्य ने विश्वामित्र को बताया, रिषीवर त्रिशंकु आश्रम से चले गए है,
और जाते जाते बोल रहे थे, की मै अपने शरीर को नष्ट कर दूंगा, विश्वामित्र तुरंत वन मे त्रिशंकु को खोजने लगे, उस समय एक जगह लकडियो को इकठ्ठा कर, त्रिशंकु अग्नि को आखिरी बार प्रणाम करके, अपने प्राण त्यागने ही जा रहा था,
लेकिन संयोग वस विश्वामित्र वहा पहुच चुके थे, और त्रिशंकु को ऐसा करने से रोक लिया, बताया की आत्महत्या करना महापाप है त्रिशंकु, ऐसे मे तुम्हारी आत्मा नर्क भी नही जा पाएगी,
पिसाच बनकर रह जाओगे, तुम्हारे सारे पुन्य नष्ट हो जाएंगे, अधूरी इच्छाएं लेकर नही मरना चाहिए त्रिशंकु,