गुरु सेवा की मिसाल – श्रीकृष्ण और दुर्वासा ऋषि की अद्भुत कथा | Hindi Story

 जब महर्षि दुर्वासा भ्रमण पर निकले...

दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर निकले

एक बार महर्षि दुर्वासा ... अपने शिष्यो के साथ कही यात्रा पर निकले ... चलते-चलते वह एक घने जंगल मे पहुंचे ... और वही कुछ समय विश्राम करने लगे ... संयोग देखिए उसी जंगल के पास द्वारका नगरी थी ... जहा भगवान श्रीकृष्ण निवास करते थे ... रिषि दुर्वासा ने अपनी आंखे बंद की … और धीमे स्वर मे बोले ... जाओ कृष्ण को बुला लाओ ... शिष्य ने द्वारका जाकर संदेश पहुचाया ...

भगवान आपके गुरु दुर्वासा रिषि आपको बुला रहे है ... बस इतना सुनना था ... श्रीकृष्ण के पाव जैसे जमीन पर ना रहे ... वे तेज गती से चल रहे थे ... सांसे तेज थी पर दिल मे आनंद था … जैसे ही वहा पहुचे ... गुरुदेव को दण्डवत प्रणाम किया ... गुरुदेव आइए मेरे घर पधारिए … मुझे सेवा का अवसर दे ... दुर्वासा रिषी मुस्कराए और बोले ... नही कृष्ण फिर कभी आऊंगा ... पर श्रीकृष्ण पीछे हटने वालो मे नही थे ... 

उन्होने फिर हाथ जोडे फिर आग्रह किया ... आखिरकार दुर्वासा रिषि बोले ... ठीक है कृष्ण हम चलेगे … लेकिन एक शर्त है ... हम जिस रथ पर बैठेंगे ... उसे घोडे नही खीचेंगे … एक ओर से तुम और दूसरी ओर से तुम्हारी पटरानी ... रुक्मिणी खींचेगी ... श्रीकृष्ण ने एक पल भी न गंवाया ... सीधे रुक्मिणी के पास पहुंचे और बोले ... आज तुम्हारी सबसे बडी सेवा चाहिए ...

भगवान कृष्ण और रूक्मिणी जी रथ को खींच रहे है,

मेरे गुरु की आज्ञा है ... रुक्मिणी ने बिना एक प्रश्न पूछे सिर हिला दिया ... जहां तुम हो वहां सेवा ही धर्म है ... दोनो जंगल मे गुरुदेव के पास आए … गुरु के चरणो मे झुके … और रथ तैयार हुआ ... जब दुर्वासा रिषि रथ पर बैठे ... उन्होने अपने सभी शिष्यो को भी ... रथ पर बैठने का आदेश दिया ... अब भार और बढ चुका था … लेकिन श्रीकृष्ण की आंखो मे कोई भय नही था ... क्योकि वो जानते थे ...

गुरु केवल बोझ नही देते ... वो श्रद्धा की अग्नि मे शिष्य को तपाते है ... और फिर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ने रथ खीचना शुरू किया ... घने जंगल, ऊबड-खाबड रास्ते … लेकिन उनकी आंखो मे बस एक ही प्रकाश था ... गुरु की आज्ञा और उसमे छिपा आशीर्वाद ... रथ धीरे-धीरे द्वारका की ओर बढा … जब गुरु दुर्वासा द्वारका पहुचे ... तो श्रीकृष्ण ने उन्हे राजसिंहासन पर विराजित किया ...

अपने गुरु का पूरा सम्मान और आदर किया ... फिर श्रीकृष्ण ने छप्पन प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनवाए ... अपने गुरुदेव के लिए सर्वोत्तम सत्कार के रूप मे ... जब वे व्यंजन दुर्वासा रिषि के सामने आए ... उन्होने सभी व्यंजनो का तिरस्कार कर दिया .. श्रीकृष्ण ने बडे प्रेम से पूछा ... गुरुदेव आप क्या लेना पसंद करेंगे ... दुर्वासा रिषि ने कहा मुझे खीर बनाओ ... श्रीकृष्ण ने आज्ञा मानकर खीर बनवाई ...

भगवान कृष्ण अपने शरीर पर खीर लगा रहे हो,

जब खीर को बनाकर तैयार किया ... वह पतीले मे भरकर गुरुदेव के सामने रखी गई ... उन्होने खीर का भोग लगाया ... थोडी-सी खीर का भोग लगा कर ... उन्होने श्री कृष्ण जी को खाने के लिए कहा‌ ... उस पतीले मे से श्री कृष्ण जी ने थोडी सी खीर को खाया ... फिर दुर्वासा रिषि ने कहा ... अब तुम इस खीर को अपने शरीर पर लगाओ ... 

श्रीकृष्ण ने आग्या पाकर ... पूरे शरीर पर खीर लगाना शुरू किया ... लेकिन जब बारी पैरो की आई ... तो श्रीकृष्ण ने विनम्रता से कहा ... हे गुरुदेव यह खीर आपका भोग-प्रसाद है ... मै इसे अपने पैरो पर नही लगाऊंगा ... यह सुनकर दुर्वासा रिषि अत्यंत प्रसन्न हुए ... उन्होने कहा ... हे कृष्ण तुमने हर परीक्षा मे विजय प्राप्त की है ... जहा-जहा तुमने खीर लगाई ...

कोमल चरणो का राज...

भगवान श्री कृष्ण रणभूमि मे अस्त्रों के बीच खडे है,

वह अंग अब वज्र के समान कठोर और मजबूत हो गया है ... इतिहास साक्षी है कि महाभारत के युद्ध मे ... श्रीकृष्ण के शरीर का कोई भी अस्त्र-शस्त्र उन्हे हानि नही पहुचा सका ... इसी कारण ठाकुरजी के चरण कमल अत्यंत कोमल और पावन है ... और जो सच्चे मन से उनके प्रेमी होते है ... वे अपने हृदय सिंहासन पर इन्हे विराजित करने का प्रयास करते है ... एक बार प्रेम से जय श्री कृष्ण जरूर लिखना ... धन्यवाद ...

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